अक्षिणी.. 🇮🇳
आज ग्यारह सितम्बर है..
भारतीय इतिहास का एक बहुत बड़ा दिन..
आज ही के दिन स्वामी विवेकानंद ने
शिकागो में विश्व हिंदू सम्मेलन में वह ऐतिहासिक भाषण दिया था जिसके बारे में सोच कर आज भी हमारा ह्रदय अपने धार्मिक वैभव और थाती पर गर्व से आल्हादित हो उठता है..
आज का दिन हमारी गौरवशाली परंपरा के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ये दिन देश की एक और महान विभूति से जुड़ा है।
आइए आज बात करते हैं कविवर सुब्रह्मण्यम भारती की जिनके गीत हम गाते हैं, जिनका देवलोक गमन आज ही के दिन हुआ..
और जिनके अंतिम संस्कार में केवल चौदह व्यक्ति सम्मिलित हुए थे..
है ना आश्चर्य की बात..?
कहते हैं कि ऐसा तो किसी शत्रु के साथ भी न हो..किंतु बिल्कुल ऐसा ही हुआ तमिलनाडु के सबसे लोकप्रिय स्वातंत्र्यवीर 'भारतीयार' के साथ..
महाकवि भारतीयार आधुनिक युग के महानतम
तमिल कवि कहे जाते हैं।
उनका कहना था कि "अलग होते हुए भी सभी भारतीय एक ही माँ की संतान हैं तो बाहरी लोगों के हस्तक्षेप की क्या आवश्यकता है?"
आपकी अधिकांश रचनाएं धार्मिक,राजनैतिक और सामाजिक विषयों पर लिखी गई हैं।
आपके लिखे गीत तमिल चलचित्रों और कर्नाटक संगीत समारोहों में अत्यधिक लोकप्रिय हैं।
वे एक शाक्तिक अद्वैती थे जिन्हें समूची सृष्टि और उसका अस्तित्व माँ काली के नृत्य का विस्तार दिखाई देता था।
जीवन के पाँचवें वर्ष में ही मातृशोक के कारण 11/12/1882 को जन्मे चिन्नास्वामी सुब्रह्मण्य अय्यर और इलाकुमी अम्माल की संतान सुबय्या का बचपन बहुत दुख में बीता.
कविताओं और तमिल साहित्य में उनकी रुचि पिता को पसंद नहीं थी,वे उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे किंतु धीरे-धीरे वे समझ गए..
और उन्हें तिरूनेलवेली के राजा की सेवा में भेज दिया।
एक बार राजा के दरबार में सुबय्या का एक पंडित जी से वादविवाद हुआ जिससे प्रभावित हो कर राज दरबार ने उन्हें "भारती" की उपाधि से सम्मानित करने का निर्णय किया।
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1898 में पिता की मृत्यु के बाद वे अपनी जीवनी संगिनी चेल्लम्मा के साथ बनारस आ गए जहाँ उनके चाचा-चाची एक मठ का प्रबंधन सँभाल रहे थे।
वहाँ उन्होंने सेंट्रल हिंदू कालेज में प्रवेश लिया,हिंदी और संस्कृत सीखी और अपनी अंग्रेजी को और निखारा।
इन्हीं दिनों उन्होंने अपनी चिरपरिचित वेशभूषा अपनाई। बाल छोटे करवाए,मूँछें बढ़ाई और उत्तर भारतीय रंग ढंग के अनुसार अपना विशेष साफा बाँधने लगे..
इट्टेयापुरम के राजा ने उन्हें लौटने को कहा तो वे 1904 में वापस लौटे किंतु राजसी वैभव उनके मन नहीं भाया.
और वे मदुरै चले गए जहाँ भाग्य ने पलटी खाई और उनकी भेंट स्वदेशी मित्रण के संपादक जी. सुब्रह्मण्य अय्यर से हुई और वे स्वदेशी मित्रण के उप संपादक बन गए।
उनका मुख्य काम था अंग्रेजी समाचारों का तमिल में अनुवाद करना।
और उन्हें अवसर मिला स्वामी विवेकानंद, बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर आदि राष्ट्रवादियों के ओजस्वी भाषण पढ़ने का..और सहानुभूति जागृत हुई राष्ट्रवादियों के साथ..
इस से उन्हें लिखने की प्रेरणा भी मिली और प्रशिक्षण भी..
स्वदेश मित्रण के उप संपादक के रूप में भारती 21वें अखिल भारतीय काँग्रेस अधिवेशन में भाग लेने काशी गए जहाँ वे सिस्टर निवेदिता से मिले। उनके कविता संग्रह के दो अंक स्वदेश गीतांजलि और जन्मभूमि सिस्टर निवेदिता को समर्पित हैं।
देशभक्त मंडयम बंधुओं ने जब "India" साप्ताहिक निकाला तो भारती उसके संपादक बने।इसके साथ ही वे अंग्रेजी पत्रिका बाल भारती, तमिल पत्रिका चक्रवर्तिनी और तमिल दैनिक विजया के संपादक रहे।
"India" में भारती ने अपनी कविताओं से जान डाल दी जिनमें उदारवादियों का उपहास था और स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेने वालों की भर्त्सना।एक कार्टून प्रकाशित हुआ जिसमें नरमपंथियो को लार्ड मोर्ले द्वारा डाली हुई हड्डी के लालची कुत्ते जैसा दिखाया गया।
वे अरबिंदो घोष से बहुत प्रभावित थे। उनसे मिले भी..
देशभक्ति का संघर्ष में जेल जाने और अंग्रेजों की ज्यादतियों के चलते वे आर्थिक रूप से विपन्न हो गए और जब बाहर आए तो एक हाथी की टक्कर से घायल हुए और कुछ दिनों बाद 11/09/1921 को उनका निधन हुआ।
वे कार्ल मार्क्स से अधिक वामपंथी थे किंतु वामपंथियों ने कभी उन्हें याद नहीं किया क्योंकि वे सनातन धर्म में विश्वास रखते थे। ह्रदय से उसी का गुणगान करते थे।
महाकवि सुब्रह्मण्यम भारती के जीवन को एक छोटी सी रचना में समेटना असंभव है..
आज बस इतना ही..शेष फिर कभी..
🙏