एक पुराना कुरता देखा,
देह पुरानी याद आई..
कैसे समाऊं खुद को उसमें
मेघ सी आँखें भर आईं..
कैसे कहूँ मैया मेरी
पीर ये कैसी दुखदाई..
तन्वंगी सी काया मेरी
कद्दू जैसी हरियाई..
एक पुराना कुरता भूली
काया दर्पण में न समाई
कौन सुने अब दुखड़ा मेरा
नाव ये मेरी मैंने डुबाई
लाख जतन किए पर
पार न मैं पाने पाई..
जल भी लगे तन अब
लगती है पुरवाई..
पीछे पड़ा देखो भार ये बैरी
कैसे हो अब इसकी छँटाई..
खैर पुराना कुरता छोड़ा
साड़ी झट ली अब लपटाई..
अक्षिणी
Bahut hi adbhut rachna hai akshini ji
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