शिक्षा का त्रिभुज अब पंचभुज में बदल गया है..शिष्य,शिक्षक और अभिभावक के साथ-साथ इंटरनेट और प्रबंधन भी जुड़ गया है..शिक्षक की भूमिका जो कभी अभिभावक के बराबर थी धीरे-धीरे शून्य की जा रही है..कारण चाहे सरकारी नीतियां हों, सोशल मीडिया हो या शिक्षा के कर्ता-धर्ता..
शिक्षा के कर्ता-धर्ता तो दूर-दृष्टि दोष से ग्रस्त हैं, सुदूर अमेरिका,फिनलैंड, युरोप,आस्ट्रेलिया की शिक्षा पद्धति तो जिनका मन मोह लेती है लेकिन अपने देश, परिवेश, परंपरा, संस्कृति का कुछ भी दिखाई ही नहीं देता। अंग्रेजियत का चश्मा चढ़ाए लोग दौरे करें और आनन-फानन नकल चालू..
अरे भले मानुसों..तुम्हारे घर का दूध-दही-घी-मट्ठा टसूए बहा रहा है और तुम परदेसी बटरमिल्क में फटे दूध का पानी पी दीवाने हुए जा रहे हो..!
शिक्षा के क्षेत्र में हमारी श्रेष्ठता निर्विवाद रही है..आरक्षण का भूत नहीं चिपटता तो जाने कहाँ होते हम!
कौन समझाए..सब को अपनी जेब की पड़ी है..
प्रोजेक्ट के चोंचले,पोर्टफोलियो की फफूंद सब विदेशी..इधर तो मास्टर से पूछ लेना काफी था।वंश-परिवार,जंत्री-तंत्री सब हाजिर।
बच्चा एक महीना दीवाली की छुट्टी मनाता,दो महीने गर्मी की और उस के बाद भी सब कुछ याद..!
और अब?
छुट्टियां है नहीं, जो हैं उनमें समर कैंप की नौटंकी और ज्ञान शून्य!
अभिभावक को लगता है शिक्षक बच्चे को चम्मच से ज्ञान की घुट्टी पिला दे। न बच्चे को कुछ करना पड़े, न अभिभावक को..
पैदा होते ही हाथ में मोबाइल और न पढ़ने का दोष शिक्षक पर..!
"हमारी तो सुनता ही नहीं है..आप ही पढ़ाओ.."
जब वो अपने मां-बाप की नहीं सुनता तो शिक्षक की खाक सुनेगा?
फिर ये यू-ट्यूब, चैट जीपीटी की फफूंद अलग..
बिना चैट-जीपीटी के ये अपना परिचय तक नहीं लिख सकते।
हाथ में मोबाइल, गोद में लैपटॉप, टेबल पर टेबलेट, कानों में एयरपॉड के कनखजूरे..मजाल कि कोई इंद्रिय तनिक भी जाग पाए?
पुस्तक से पढ़ना क्या?
कापी में लिखना क्यों?
करो स्क्रॉल और जै माता दी..
सारी सुविधाओं से परिपूर्ण ऊंघियाते हुए कक्षा में आना,बैठे-बैठे इसको उसको छेड़ना और धाराप्रवाह बोलते रहना!
ये है आज का शिक्षार्थी!
सच तो यह है कि बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ाने के फेर में हम ने उन्हें दुस्साहसी और धृष्ट बना दिया है।
और आत्मविश्वास की ये ओवरडोज आत्मघाती सिद्ध होगी!
और प्रबंधन..कुछ मत पूछिए..उन्होंने तो विद्यालय को दुकान समझ लिया है।
सस्ते शिक्षक लगाओ जो स्मार्ट बोर्ड पर वीडियो चलाए और पढ़ाई खत्म। हफ़्ते में दो बार उसी बोर्ड पर गेम खिलाओ, फिल्म दिखाओ..
सब खुश ..!
एक और बात..शिक्षक को सरकारी और निजी विद्यालयों में बाँटने की गलती न करें।
वर्तमान समय में दोनों ही त्रस्त हैं कि वे अपना शिक्षण कार्य निर्बाध रूप से नहीं कर पा रहे।
सरकार के अपने टारगेट, अपने स्वार्थ हैं और निजी स्कूलों के अपने..!
परसाई जी के शब्दों में शिक्षा और शिक्षक तो चौराहे पर पड़ी वो कुतिया है जिसे हर आता-जाता लात मार जाता है..
उन्हें लगता है कि शिक्षक को आता ही क्या है?
शिक्षक की आवश्यकता ही क्या है?
ये मान कर चलिए यदि शिक्षक की भूमिका उपेक्षित रहेगी तो शिक्षा का बंटाधार तय है।
सच तो यह है कि शिक्षा आज भी शिक्षक नामक जिस कमजोर कड़ी पर टिकी है यदि वो छिटक गई तो कोई माई का लाल इसे पटरी पर नहीं ला पाएगा।
फिर मनाते रहिएगा गुरु पुर्णिमा और शिक्षक दिवस..शिक्षक को संग्रहालय में बैठा कर..!!
इति।
अक्षिणी