व्याकरण के गाँव में जब
इक हास्य कविता आई
हाथ घूँघट थाम बैठी
सिकुड़ी,सकुची और शर्माई
सर्व रूप श्रृंगार किए वो
नेह मिलन की आस लाई
नववधु थी गाँव की वो
होनी ही थी मुँह दिखाई
फिर चंद्रबिंदु अनुस्वार की बारी
फिर अलंकार ढूँढे सब नर नारी
वर्ण और व्यंजन भाव पे भारी
बिन विराम के देखो दे दे तारी
हास न जानें, परिहास न मानें
मर्म न समझें, दें मात्रा की दुहाई
व्याकरण के गाँव में जब
इक हास्य कविता आई..
नववधु थी वो गाँव की
खूब भई फिर मुँह दिखाई..
नये घर में वो अबला नारी
लाज की मारे चुप थी बेचारी
झुक झुक देखो पैर लगे जो
संधि कर कर मंशा वो हारी
खूब थी उसने जुगत लगाई
फिर भी देखो समझ न पाई
व्याकरण के गाँव में जब
इक हास्य कविता आई
मर्ज़ी की जो चाल दिखाई
भूल गए सब मुँह दिखाई..
अक्षिणी
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