रविवार, 5 दिसंबर 2021

सत्ता की जात..

इनके कपड़ों पर तंज बनते हैं,
उनके बंगलों की बात होती है,
मुद्दे सारे वहीं कहीं रहते हैं
रंगे सियारों की बात होती है..

कभी राम को गाली देते हैं,
कभी नाम पे ताली देते हैं,
बाँध के धोती मंदिर-मंदिर
जनेऊधारी की बात होती है..

इनको धर्मों के ताने पड़ते हैं,
उनको मज़हब की लात पड़ती है..
मौका दिन ही बदल देता है,
हर रात सुहागरात होती है..

इनकी डिग्री पे उँगली उठती है,
उनकी बिक्री पे मात होती है..
लोग उम्मीद नहीं रखते अब,
एक सत्ता की जात होती है..

राजनीति के हाल चंगे हैं,
कुर्सी पे सब लाल नंगे हैं..
सीधी-उल्टी वो चाल चलते हैं,
जनता रोज हलाल होती है..

~अक्षिणी

बुधवार, 17 नवंबर 2021

रुदाली..

वो तमाम किस्से जो मेरे बाद कहे जाएंगे
जो आज वो कह जाएं तो क्या बात हो

वो तमाम गुंचे जो मेरी अर्थी पे उछाले जाएंगे
जो आज वो महक जाएं तो क्या बात हो

वो तमाम कसीदे जो मेरी मैयत पे पढ़े जाएंगे
जो जीते जी वो कह पाएं तो क्या बात हो

वो तमाम रुदालियाँ जो मेरी खातिर गाई जाएंगी..
वो जीते जी मेरे साथ गुनगुनाएं तो क्या बात हो..

वो तमाम लोग जो मेरी मौत पे आएंगे
जो आज वो मिल जाएं तो क्या बात हो..

~अक्षिणी

शनिवार, 13 नवंबर 2021

Children's Day

Hues of Bright and Right
Cues of Light and Might
Fuse together to form
The beautiful spectre of life
That we call a child
With a touch of wild..

Happy Children's Day to the balls and bundles of positive energy..


Akshini

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2021

कब तक..?

कब तक..?
कब तक टालोगे..
कब तक..?
कब तक राह तकोगे..?
कब तक..?
कब तक चुप रहोगे..?
कब तक..?
कब तक बस करोगे..?
और तमाशा कब तक..?
घोर निराशा कब तक..?
इन दामों नहीं हमें स्वीकार..
करना होगा अब प्रतिकार..
कब तक..?

~अक्षिणी

दशहरा..

किस बात का दशहरा?
नपुंसकों की जय है
नरभक्षियों का समय
न राम ने आना 
न रावण का मारा जाना
न गीता का गान कहीं
न सीता का मान कहीं
रावण तो रावण 
पुतला तक न जला पाना
न देवियों को चिंता कोई
न देवों का जग से नाता
किस बात का जय घोष?
कैसा धर्मक्षेत्र?
कैसा धर्मयुद्ध?
किस बात का दशहरा?

~अक्षिणी

अन्नदाता हैं जी..

अन्नदाता हैं जी..
रास्ता रोकेंगे
बसें जलाएंगे
भिंडरावाले की जय करेंगे
कारें तोड़ेंगे
सर फोड़ेंगे
लाल किले को मटियाएंगे
तारें काटेंगे
तिरंगा उतारेंगे
सिपाही को धकियाएंगे
जनता को लतियाएंगे
हाथ काट कर लटका देंगे
लालच में अर्थी उठवा देंगे
हे राम!
कब तक अन्नदाता कहे जाएंगे?

~अक्षिणी

दुहाई..

है अगर ये अपनी सरकार तो 
पराई क्या होगी?
राजधानी में चल रही तलवार तो 
दुहाई क्या होगी?

भड़कने दी जो आग,अब 
कड़ाई क्या होगी?
पाल लिए बाहों में साँप,
लड़ाई क्या होगी?

उठ रही नासूर से सड़ांध,
दवाई क्या होगी?
भलाई की खा रहे मात,
बुराई क्या होगी..?

~अक्षिणी

मंगलवार, 21 सितंबर 2021

मनुज लाँघते कितने अँबर..

अभिलाषाओं-आकांक्षाओं के कितने भूधर
लेकर अपने हिय के भीतर
मनुज लाँघते कितने अंबर
कितने सरित-गिरी और गह्वर
कितने कंटक-सुमन और शर
धूप-घाम-घन पानी पत्थर
जल-थल-नभ सब छू कर
मनुज लाँघते कितने अँबर
कितने सागर कितने भँवर
मनुज ठानते कितनी टक्कर..

~अक्षिणी



निवृत्ति..

तुष्टि से तृप्ति, संतुष्टि से संतृप्ति..
प्रवृति से निवृत्ति ही प्रगति..

~अक्षिणी

रविवार, 15 अगस्त 2021

ओढ़े हुए अहम..

बोये हुए आँसू 
ओढ़े हुए अहम
और 
ढोया हुआ क्रोध
क्षोभ ही निपजें..
भस्म कर दें हमें 
आग ही उपजें..
हम से मिलो तो
छोड़ आया करो..
थोपे हुए लहजे
उखड़े हुए हत्थे
चुभते हुए हिज्जे
आप ही किरचें 
भरने न दें कभी
घाव ही खुरचें
आइने को अपने 
न झुठलाया करो..
हम से मिलो तो
छोड़ आया करो..

रविवार, 1 अगस्त 2021

ज़िंदगी..

वो अपनी गली में आना तेरा
और इठला के वो इतराना तेरा
याद मुझे अब आता है
हौले से वो शरमाना तेरा

भूले से कहीं मिल जाना तेरा
नुक्कड़ पे वो टकराना तेरा
याद मुझे अब आता है..
वो धानी चुनर लहराना तेरा

आज मुझे मिल जाना जरा
बातों से मुझे बहलाना जरा
फिर आज मुझे भरमाता है
यूँ शाम ढले घर जाना तेरा..

~अक्षिणी

शनिवार, 31 जुलाई 2021

बरसन लागी..

छलकन लागी नेह गगरिया
बरसन लागी मेह गठरिया..
तकत तकत अब नैन थकत हैं
गरजन लागी देह बिजुरिया..

घुमड़ रहे घन घनन घनन घन
बूँदों की छम छनन छनन छन
बहके पवन संग सनन सनन सन 
बावरा मन झन झनन झनन झन

थिरकन लागी मोह मुरलिया
निरखन लागी पी की डगरिया
परस-परस जल दाह लगत है
पी के दरस को तरसे गुजरिया..

~अक्षिणी



बुधवार, 28 जुलाई 2021

जल ही तो जीवन है..

बारिशें नहीं.. जीवन है..
बूँद बूँद ये..अमृत है..
अँजूरी तुम भर के देखो..
या जिह्वा पर रख के देखो..
गागर गागर भर लो इससे
सागर सागर कर लो इससे
इसको व्यर्थ न बहने देना
न माटी में मिलने देना..
छत-चौबारे जलकोष बनाएं..
जल भर कर जीवनतोष बनाएं..
जल है तो जीवन है..
जल ही तो जीवन है..

~अक्षिणी

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

उम्र..

माथे की 
उजली रेखाएँ
हलकी गहरी
वो सलवटें
साक्षी सब हैं
बीती घड़ियों के
दुख के, सुख के
रिश्तों के रूख के
नज़र आते हैं अचानक
मगर उभरते शनै शनै
माँ की मायूसी के घेरे
पिता की खामोशी के फेरे
उग आती हैं माथे पर
रजत रश्मियाँ
उम्र के निशान
बोझिल कश्तियाँ
आशीषों के स्वर्णघट की
वो बरसातें
स्मृतियों के बिछड़े ठौर
हम जीते जाते..

~अक्षिणी

सोमवार, 26 जुलाई 2021

बीता हुआ एक और साल..

दिखने लगे हैं इन दिनों,
चेहरे पे बीते वो साल..
सलवटों में हो रहा बयां,
बदलते मौसमों का हाल..
कहने को हुजूर..
हैं आज भी कमाल,
कर रहे हैं चुगली मगर..
बालों में चाँदी के चंद तार,
मुबारक हो जनाब,
ये ठहरी हुई बहार..
बीता हुआ एक और साल..

~अक्षिणी

छाँव की प्रीत..

छाँव की झूठी प्रीत है प्यारे,
धूप में छूटे सब मीत सखा रे

उगता सूरज, पूजता जग है,
ढलते दिन का कौन सगा रे..

है घोर अँधेरी रात अकेली,
चहकते गुजरे दिन के उजारे..

बोझिल मन की कौन सुने है,
अपने मन तू पुलक जगा रे..

मेह के दिन सब दादुर बोले,
सूखे बदरा निज नाम पुकारे..

छाँव की झूठी प्रीत है प्यारे,
धूप में छूटे सब मीत सखा रे..


~अक्षिणी


सोमवार, 21 जून 2021

सियासत..

इस मुल्क के बाशिंदों की आँखें खुलेंगी,
नकली चेहरों के कुछ नकाब तो हटा दो।

चला रहे हैं ये जिन कंधों पे रख बंदूकें ,
असलियत इनकी किसानों को दिखा दो।

नफरतों की खूब जो कर रहे हैं सियासत,
इन्हें होश में लाओ, हथकड़ियाँ लगा दो।

~अक्षिणी

सोमवार, 14 जून 2021

भीड़ से अलग..

इंकलाब वही लाते हैं
जो अकेले चने होते हैं..
भीड़ तो चनों के ढेर सी
भाड़ में भुन जाती है..
इसलिए,सुलगते रहो,

अकेले हो तो क्या..?

बुझने न दो इस आग को,
भाड़ क्या..
हम पहाड़ चीर दें..

~अक्षिणी..

रविवार, 6 जून 2021

क्षमाएँ..

क्षमाएँ..
जो प्रतीक्षारत हैं सदियों से
जो पंक्तिबद्ध हैं सदियों सें
क्षमाएँ..
अनभिज्ञ काल की गतियों से
बोझिल मन की बदियों से
क्षमाएँ..
जो माँगी नहीं गईं कभी
जो चाहीं नहीं गईं कभी
क्षमाएँ..
जो लज्जित हैं सुधियों से
जो शापित हैं त्रुटियों से
क्षमाएँ..
जो पहुँची नहीं गंतव्य को
जो समझी नहीं मंतव्य को
क्षमाएँ..
जो प्रतिक्षित थी नहीं कभी
जो अपेक्षित थी नहीं कभी
क्षमाएँ..
जो क्षमा माँगती रहेंगी सदा
जो क्षमाप्रार्थी रहेंगी सदा

~अक्षिणी..


गूँज रहा है कौन..?

अनहद के इस नाद में, गूँज रहा है कौन
महाकाल के काल में,काल खड़ा है मौन..

~अक्षिणी

शुक्रवार, 21 मई 2021

शब्द-शब्द..

शब्द-शब्द अश्रु से,
बह रहे ज्यों नैत्र से..
शब्द-शब्द गीत से,
लड़ रहे ज्यों पीर से..
शब्द-शब्द दग्ध से,
जल रहे ज्यों कष्ट से..
शब्द-शब्द तिक्त से,
तर बहे ज्यों रक्त से..
शब्द-शब्द याद के,
कह रहे ज्यों हार के..
शब्द-शब्द पुष्प से,
झर रहे ज्यों प्राण से..

🙏

शनिवार, 15 मई 2021

सुनो ईश्वर..

सुनो..
तुम्हारे होने पर विश्वास है मुझे,
संकेत दो कि तुम सुन रहे हो..
झंकृत कर सब तार आस्था के,
कुछ तो कहो,क्या बुन रहे हो..

सुनो..

सबदरसी हो कर समदृष्टि में
विकट विषम दृश्य लिख रहे हो..
आहत मन और आर्द्र दृगों में,
काल भयंकर देव दिख रहे हो..

~अक्षिणी

गुरुवार, 13 मई 2021

बहलाया जाए..

सुना-सुना सा कुछ फिर इक बार सुनाया जाए..
फिर इक बार यूँ महफिल में रंग जमाया जाए..

हालात का मातम सरे आम न यूँ मनाया जाए..
फकत दिल ही तो है, किसी तौर लगाया जाए..

वक्त के जख़्मों को न यूँ बेवजह जगाया जाए..
हालात बदलें न बदलें,उम्मीद से बहलाया जाए..

इलजाम ये मोहबत का किसी पर न लगाया जाए..
मुमकिन नहीं कि हर इक शै को आजमाया जाए..

ज़िंदगी नज़्म ही सही, गज़ल इसे बनाया जाए..
रदीफ नहीं, न सही, काफ़िया तो मिलाया जाए..

~अक्षिणी


बुधवार, 28 अप्रैल 2021

They would come..

They would come at you..
They all would come at you..
To put you down..
To keep you down..
To curse you..
To condemn you..
They would look down..
Upon you, your being ..
And everything about you..
From Conch to Coconut..
From Tilak to the Thread..
From Living to the Dead..
From Lamp to the  Pyre..
Homam to the Funeral Fire..
Because..
You do not subscribe ..
To their school,their pool..
Rough at the edges..
Unpolished to the core..
Your existence is a thorn..
You were best not born..
In their silky soft robe..
My Lords of the phobe..
And you wouldn't know..
They are your very own..
Be ready,willing to yield..
Just put your head down..
Looking at the Buker..
Eyes at the Pulitzer..
For a few US dollars..
For a few shining collars..
They would sell you out..
You shan't have a doubt..

Akshini 









गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

कहाँ से लाओगे..?

यूँ पहलु बदलने से कुछ नहीं हासिल,
भीगी आँखों का नूर कहाँ से लाओगे..?
रो के निखरी है जो अश्कों से रात भर,
वो निगाह चश्मेबद्दूर कहाँ से लाओगे?

~अक्षिणी 

बुधवार, 31 मार्च 2021

निरीह..!

इस संसार में भांति-भांति के जीव पाए जाते हैं..
सभी का अपना-अपना स्वभाव, निभाव और दुर्भाव होता है..
सृष्टि के आविर्भाव के साथ ही एक निरीह प्रजाति का प्रादुर्भाव हुआ..
उसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई कि यह प्राणी समस्त जड़-चेतन के परे होगा..
कि ताप-दाब-आँधी-तुफान जैसी आधियाँ-व्याधियाँ इसे कभी छू नहीं सकती। यह प्राणी बड़े ही संतोषी स्वभाव का होगा। जो इसके पास होगा वह तो बाँटेंगा ही किंतु जो नहीं होगा वह भी यह किसी तरह जुगाड़ बैठा कर बाँटेंगा।
कि इसे सर्दी-जुकाम तो क्या कलियुग की कोरोना महामारी भी छू नहीं पाएगी।
बारहों महीने आठों पहर यह तुच्छ जीव कर्तव्य पालन में जुटा रहेगा।
इस पर चारों ओर से वज्र प्रहार होने पर भी यह डटा रहेगा।
संसार के समस्त मनोविकारों से परे यह जीव देवतुल्य होगा इसलिए जब चाहे इसका पेट काटा जा सकेगा।
कि इसे किसी भी प्रकार के विराम अथवा विश्राम की आवश्यकता नहीं होगी। कोल्हू के बैल की भांति ये तब तक जुटा रहेगा जब तक इसका स्वयं का पूरा तेल न निकल जाए।
कालांतर में यदि अवसर मिला तो यह अपना तेल निकलने के उपरांत बची खली भी जनता-जनार्दन में बाँट देगा।
कि यह प्राणी सर्वज्ञानी होगा..इसे कोई कौशल प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं  है। इसका सकुशल होना ही इसका वास्तविक कौशल होगा।
आपत्ति-विपत्ति के कठिन समय में यह कलियुगी चीन की दीवार की तरह सब तरफ ढाल बना कर फेंक दिया जाएगा।
कि इसका भोलापन ही इसका एकमात्र अस्त्र होगा जिसे यह निर्विकार भाव से दूसरों की भलाई के लिए ओढ़े रहेगा।
श्वास तो होगी किंतु श्वास भरने का समय नहीं होगा।
हाथ तो दो ही होंगे किंतु उन्हें दस समझा जाएगा।
कि यह प्राणी इतना विनयी होगा कि सदैव शीश नवाए रहेगा..इसके कंधे और सदैव झुके रहेंगे।
कि विभिन्न युगों में भिन्न-भिन्न प्रकार से इसका दोहन किया जाता रहेगा।
कि गाँव-देहात-नगर-डगर-देस-परदेस सभी जगह पाया जाएगा।
कि इसका जीवन प्रसवावस्था की भांति दस मास का होगा जो बारहमासी हो जाएगा।
कि ऐसे विलक्षण प्राणी को प्रत्येक युग में 
शिक्षक कहा जाएगा..!

अब दोबारा पढ़िए..

🙏🤓

अक्षिणी..

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

परकोटे के द्वार..

पुराने समय के नगर नियोजन में सुरक्षा की दृष्टि से नगर के चारों ओर अभेद्य दीवार बनाई जाती थी जिसे नगरकोट कहा जाता था। कालांतर में जब नगर शहर हुआ तो इसे शहर कोट कह कर बुलाया जाने लगा।
जंगली जानवरों और शत्रुओं से बचाव के  लिए केवल पत्थरों और गारे से बनी इन दीवारों में जगह-जगह निगरानी चौकियां बना कर उन पर कड़ा पहरा रखा जाता था।
पहाड़ों पर बने दुर्गों पर तो इनका महत्व और भी बढ़ जाता था।
यदि हम अपने पुरखों के बनाए भव्य
निर्माण का अवलोकन करें तो प्राचीन स्थापत्यकला के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं।बिना आधुनिक यंत्रों, निर्माण सामग्री आदि की अनुपस्थिति में इतना भव्य निर्माण किसी चमत्कार से कम नहीं है।
तकनीक के क्षेत्र में बड़े ही समृद्ध रहे होंगे हमारे पूर्वज जो स्थानीय सामग्री से सुंदर और सुसज्जित निर्माण करने में सक्षम हुए।
भव्यता के साथ मजबूती और दर्शनीयता का भरपूर ध्यान रखा जाता था।कितने ही जर्जर क्यों न हों उस समय के भवन अद्वितीय संतुलन एवं अनुपम सौंदर्य लिए होते थे।
यदि उस समय की निर्माण तकनीक का विश्लेषण किया जाए तो हम पाएंगे कि सभी निर्माण प्रकृति को ध्यान में रखते हुए किए जाते थे। पंचतत्वों का अधिकतम उपयोग उन्हें हानि पहुँचाए बिना..ऐसा उदाहरण कतिपय ही मिलेगा।
लंबे-चौड़े खुले बरामदे और कक्ष जो न सर्दियों में गले न ही गर्मियों में तपे..!
सहस्त्रों वर्षों से शीश उठाए खड़े ये भवन हमारे समृद्ध इतिहास की साक्षी हैं..
अद्भुत..!
नयनाभिराम किंतु हम बात नगरकोट की यानि परकोटे की कर रहे थे।परकोटे में प्रवेश और निकास के लिए विभिन्न दिशाओं में विशाल द्वार बनाए जाते थे जिन से रथ, हाथी, ऊँट आदि सरलता से आ जा सकें..प्रत्येक द्वार पर कड़ी जाँच के बाद शुल्क ले कर ही आगंतुकों को प्रवेश दिया जाता था।
इन द्वारों के नाम लगभग सभी जगह एक से हुआ करते थे..इसीलिए हर शहर में हमें एक सूर्यद्वार (सूरजपोल,पूर्व की ओर खुलता हुआ), चंद्रद्वार (चाँदपोल, पश्चिम की ओर खुलता हुआ, ब्रह्मपोल, हाथीपोल, किशनपोल आदि सुनने को मिल जाते हैं।
नगर रक्षकों द्वारा बिना बिजली के दिन-रात नगर की निगरानी अत्यंत दुष्कर रही होगी..ऐसे में असीम निष्ठा,दृढसंकल्प और आस्था का आश्रय अवश्यंभावी रहा होगा इसीलिए परकोटे के साथ-साथ छोटे-बड़े अनेक मंदिर बने होते थे जिनकी सेवा-पूजन का उत्तरदायित्व राजे-महाराजों का रहा होगा।
समय बदला..राजाओं का राज गया..पहले मुगलों ने लूटा-खसौटा, फिर अँग्रेज़ों ने और अब जनता का राज है..जर्जर नगरकोट बताते हैं कि आज का राजा यानि जनता कितनी संवेदनहीन है इनके प्रति।
दिन-प्रतिदिन धूलि-धुसरित होते इन नगरकोटों में लगती सेंध जनता की निस्पृहता की मौन किंतु मुखर साक्षी है..

~अक्षिणी..
 

रविवार, 21 मार्च 2021

ओस सी धुली-धुली..

ओस सी धुली-धुली,दूध सी घुली-घुली सी है

बर्फ सी सिली-मिली,फूल सी खिली-खिली सी है


मेरे संग रोती-हँसती,मुझ सी वो बतियाती है

आँसू के अमृत बरसाती, यादों में जीती जाती है


गुँजन-गुँजन गाती जाती,शिंजन-शिंजन खनकाती है

पल-पल तोला,रत्ती माशा,छन-छन रूठी-मनती आशा..


निर्मल निश्छल निर्झर सी,भोली-भाली भली सी है

मेरी कविता सीधी-सच्ची मेरे मन की एक नदी सी है..

~अक्षिणी 

सोमवार, 15 मार्च 2021

क़तरा-दर-क़तरा..

क़तरा-दर-क़तरा वो धूप जिया करती है,
इक चिलमन यूँ तेरी बात किया करती है..

~शिकंजी

कौन सुनता है..


कौन सुनता है..
सभ्यताओं के आर्तनाद
अपनी विवशताओं के चलते
युग-युगान्तरों में 
सबसे तीक्ष्ण,
सबसे दीर्घ, 
सबसे मुखर
हुआ करते हैं..

और इतिहास साक्षी है,
कि सभ्यताएँ 
अपने अपनों के
विश्वासघातों से ही
धूलि-धुसरित होती हैं..

~अक्षिणी 
@Samridhi85 कविताखोर की प्रेरणा से..

सोमवार, 8 मार्च 2021

हाशिये पर..

संधियाँ मंजूर नहीं थी,सो हाशिये पर सरक आए..
हैं तुम्हारे ये विच्छेद सारे,रिक्तियाँ सारी संग हमारे..

~अक्षिणी..

शनिवार, 6 मार्च 2021

नई रोशनी..

चल निशा को सुबह कर लें 
और सुबह से संधि कर लें
अंधियारों को चीर कर हम, 
नई रोशनी को नये स्वर दें..
अक्षिणी..

भोर की डोर..

भोर की डोर,कुहुक चली सुबह की ओर,
मन-उपवन में थिरक रहे हैं वासंती मोर..


अक्षिणी..

ढलता हुआ सूरज..

सुबह का वादा हुआ करता है ढलता हुआ सूरज,
वापसी की आस दिया करता है ढलता हुआ सूरज..
रात के आगोश में खुद को सौंपता नहीं लम्हा भर,
हौसलों को पंख दिया करता है ढलता हुआ सूरज..

हर ठौर को रोशन करने को हरदम डूबता आया,
इस ओर नहीं, कहीं ओर सही फलता हुआ सूरज..
चढ़ता क्या ढलता क्या दिन-रात ये चलता रहता,
रोशन करने धरती अम्बर खुद जलता हुआ सूरज..

अक्षिणी..

मंगलवार, 2 मार्च 2021

प्रश्न..

दृश्य एक नया लिख रहे हो तुम,
सर्जना से मुग्ध, दिख रहे हो तुम..

चित्रपट पे नव,नयी तूलिका लिए 
स्वगीत पर स्वयं, नृत्य मग्न तुम..

युद्ध एक नया, रच रहे हो क्यूँ?
ध्वंस की ध्वजा,बट रहे हो क्यूँ?

धर्म यज्ञ नव, कर रहे हो तुम,
सर्व त्रास यों, हर रहे हो तुम..

वृष्टि वह्नि व्योम, वायु पृथ्वी भौम,
क्षीर या कि सोम,मथ रहे हो क्यूँ?

त्राहि चारों ओर, सृष्टि कर के मौन,
रास कौनसा नया, रच रहे हो तुम?

~अक्षिणी 

मैं समय हूँ..

मैं समय हूँ.
संहार हूँ,मैं ही प्रकट प्रलय हूँ
विषाद भी,मैं ही विकट विषय हूँ
मैं..
संतापहरण,दुखियों का संचय हूँ
विश्वास अडिग,फिर भी संशय हूँ
मैं..
स्मृतियों की सरिता का जल निर्मल हूँ
इतिहासों की साखी,मैं ही गत-निर्गत हूँ
सच निर्मोही,मैं ही सत अगम-निर्मम हूँ
मैं समय हूँ..


~अक्षिणी 

कुछ शामें..

कुछ शामें तुम सी होती हैं
सिन्दूरी, गहराई हुई..
मौन पर मुखर..
दुलराते हैं शब्द तुम्हारे
दूर कहीं से छन कर आते
सहला जाते हैं धीमे से
टीस के सिरे..

हाँ! तुम ही तो हो वो गीत
जिसे गुनगुना के मैं
जी उठती हूँ..

सोमवार, 1 मार्च 2021

थाम लो..

थाम लो तनिक,ये स्नेहमयी दृष्टि..
ध्यान की तरह..
निर्निमेष अपलक खींचती मुझे..
प्राण की तरह..
बाँच लो कभी,हो मुखर पुनः
जी उठे जिया..
संग हम तेरे,उड़ चले कहीं,
स्वप्न की तरह..
🙏
अनुवाद ..
@chandanas

बुधवार, 27 जनवरी 2021

ये कैसी आज़ादी है..?

ये कैसी आज़ादी है?
74साल बाद भी हम अपनी-अपनी अलग पहचान का झंडा लिए खड़े हो जाते हैं,अपने अधिकारों का परचम लिए हर तीसरे दिन देश को आँखें दिखाने लगते हैं.
हमें न अपने राष्ट्र की परवाह है,न राष्ट्रीय पर्व का लिहाज,ना ही अपने राष्ट्रीय प्रतीकों के लिए हमारे मन में कोई सम्मान..!
ये कैसी आज़ादी है?
इतने शर्मनाक कृत्य के बाद भी लोग अपनी तुच्छ राजनीति से बाज नहीं आते..
कृषि बिल विरोध के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए किसानों को भड़काने का काम भी तो हमारे ही कुछ अपनों ने किया..!

ये कैसी आज़ादी है?
किसी भी नियम की अनुपालना हम स्वेच्छा से नहीं करते.
यातायात का नियम हो या कर कानून हम उनकी अवहेलना कर गर्व करते हैं.
स्वच्छ भारत के विरोध में हम पटरियों पर शौच करने बैठ जाते हैं.
क्यों हम अपने देश को अपना नहीं समझते और बाहर वालों की बातों में आ जाते हैं?

ये कैसी आज़ादी है?
सरकारी संपत्ति को हम अक्षरशः अपनी समझते हैं और गाहे-ब-गाहे उसे तोड़-फोड़ कर अपना क्रोध व्यक्त करते हैं..
रेल हो, बस हो, या सड़क सब का उपयोग और दुरुपयोग हम अपना अधिकार समझते हैं..

ये कैसी आज़ादी है?
किसान आंदोलन को ही लीजिए..
विरोध समझ आता है किंतु क्या ट्रैक्टर रैली आवश्यक थी?
क्या सिद्ध करना चाहते थे..?
कि आप अपनी चुनी हुई सरकार से ज्यादा ताकतवर हैं?
क्या आप अपने ही देश की सरकार को पूरे संसार के सामने शर्मसार करना चाहते थे?

ये कैसी आज़ादी है?
और विरोध प्रदर्शन के नाम पर लालकिले पर आपका शर्मनाक कृत्य किसानों के प्रति सहानुभूति को जन्म देगा?
आप तो समझदार होने का दावा करते थे?
यदि इस अराजकता से आपका कोई संबंध नहीं है तो आप साथ क्यों खड़े हैं?

ये कैसी आज़ादी है?
"जय जवान जय किसान" का क्या हुआ?
शर्म नहीं आई जब आप लोगों ने पुलिस कर्मियों पर हाथ उठाया?
वे पुलिस कर्मी जो राष्ट्र की सेवा में सन्नद्ध थे?
क्या हासिल हुआ?
राजनेताओं को तो अपनी रोटियाँ सेंकनी
हैं किंतु आप उन की बातों में कैसे आ गए..?

ये कैसी आज़ादी है?
पूछिए एक बार स्वयं से..आज़ादी का पचहत्तरवाँ साल द्वार पर खड़ा है..
क्या हम पात्र हैं इस आज़ादी के लिए?
क्या हम समझते हैं अपना उत्तरदायित्व?
क्यों हम भीड़ के साथ भीड़ बन खड़े हो जाते हैं और झंडे के डंडे से ही झंडे की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला देते हैं..?

ये कैसी आज़ादी है?
इस मुगालते में न रहे कि इस सब से आपके आंदोलन को कोई लाभ होगा.
दिल्ली पुलिस ने आपको अनुमति दी. आपने उनकी बात रखी?
यदि नहीं तो किस मुँह से सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं?
प्रश्न तो उठेंगे,उठेंगी उंगलियाँ आप पर.
क्षमा करिए अन्नदाता जी,दलालों के हाथ खेल गए आप..!

~अक्षिणी 

धन्य हो अन्नदाता..

जलियाँवाला पूछ रहा है लाल किले से रोकर हाल,
कितने नाशुक्रे निकले देखो अपने ही पेट के लाल..

डायर के फायर से भारी अपने अपनों की मार,
बिन गोली के हुआ है छलनी सीना अबकी बार..

लाल किले की लज्जा लूटी,प्राचीर पे किया वार,
गणतंत्र दिवस का अपमान किया,तिरंगा लिया उतार..

बारूद लगा कर भाग छूटे हैं नकली नक्सल यार,
आज नहीं तो कब गाजेगी आखिर कानूनी तलवार..

माटी के माथे पर मल गए ये कैसा भीषण काला दाग,
भारत की छाती पर दल गए देखो ये नफरत की दाल..

तलवार भांजते जो निकले उनको कह दूँ कैसे मैं जय किसान,
भूखे रहना मंजूर मुझे नहीं चाहिए ऐसे अन्नदाता किसान..


~अक्षिणी 




गुरुवार, 7 जनवरी 2021

लड़ना होगा..

सहज सदा नया कुछ कर जाना,
नयी नींव पर मंजिल कर जाना..
सुधार कोई सरल नहीं है जग में,
कठिन बहुत बिगड़े को बनवाना..

सब जंजीरें तंत्र की जंग लिए होंगी,
कड़ियाँ अटकी,भटकी,उलझी होंगी..
जलना होगा तुझको, तपना होगा,
सरल नहीं होगा लोहे को पिघलाना..

अड़ना होगा तुझको,लड़ना होगा,
अपनी हर बात पर डटना होगा..
हारना मत तुम बस चलते जाना,
बाधाओं को साध तुम बढ़ते जाना..

~अक्षिणी