मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

मेहर की मेहर

लो अब मेहर चली नैहर.
जलता रहे ये गाँव ये शहर,
लो अब मेहर चली नैहर.
बाँट कर मुल्क में नफरतों का जहर
बरपा कर कच्चे पन्नों में कहर,
लो अब..
दिखा के तख्तियां पहर दो पहर
उठा कर समंदर में शोलों की लहर,
लो अब..
झूठ के दम बुलंदियों पै थी नजर,
सच के सामने सका न जो ठहर.
लो अब..

अक्षिणी भटनागर

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