सयाने हो गये हैं जो लोग सब,
बच्चों को बहकाने की कोशिश है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
झुनझुना फिर हाथ में है.
मुल्क की मुख़ालफत का
सबक फिर पाठ में है.
जल गई हैं मशालें बगावत की,
फिर मुल्क को जलाने की कोशिश है.
चुभ रहा है कुछ आँखों को,
वतनपरस्ती का जुनून.
अरसा हो गया है बस्तियों में,
उजड़ा नहीं सुकून.
कई दिनों से मायूस सी है सियासत,
कोई कन्हैया उगाने की कोशिश है.
मासूम निगाहों में सज गये हैं,
खुशियों के मंजर.
नन्हें हाथों में दिखते नहीं हैं,
नफरत के खंजर.
ज़ुबानें ढूंढ रही है नये तराने
ख़िलाफत के गीत गाने की कोशिश है.
संभल जाओ मुल्क के निगहबानों,
बच्चों को बरगलाने की कोशिश है..
अक्षिणी भटनागर
बहुत खूबसूरत। वर्तमान परिदृश्य में सौ प्रतिशत सटीक।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत ।
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिदृश्य मे सटीक ।
वर्तमान स्थिति को परिलक्षित करती हुई सामयीन रचना...बधाई।
जवाब देंहटाएं