है शर्म अगर तो सजदा कर ले,
वो वतन को जाँ कर के निकला है घर से.
इन उधार के पत्थरों से तौबा कर ले,
वो कफन बाँध के निकला है अपने घर से.
दौड़ आया है लड़ने के लिए,
तेरे ख्वाबों को सजाने खातिर..
छोड़ आया है वो अपनों को कहीं,
तेरे घर को बचाने खातिर..
ख़ैर चाहे तो ये पत्थर न उठा,
उसकी वर्दी पे निशाना न लगा..
गैर मुल्कों से मुहब्बत न बढ़ा,
अपनी हस्ती का तमाशा न बना..
हाथ रोके जो यूं चुपचाप खड़ा है ,
उसको कायर न समझ..
चीर के रख देगा एक पल में,
उसको लीडर न समझ..
खाक हो जाएगा वो तेरी ख़ातिर,
उसको जख़्म दे के यूं खुशियाँ न मना.
पाक के नापाक इरादों को समझ,
अपने हाथों से तू जन्नत न जला..
जान देकर भी जो ज़िंदा रहेगा,
उसके लिएआसमां रोएगा,रोएगी ज़मी..
तेरी हस्ती का निशां भी न रहेगा,
उसके कदमों को तो चूमेगी ज़मीं..
वो कफन बाँध के निकला है अपने घर से..
वो वतन को जाँ कर के निकला है घर से..
अक्षिणी भटनागर..
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