आजाद पतंग सा एकाकी ,
छितरे से तागे संग गूँधा मन ..
और इस धागे के तमाम सिरे
तुम तक पहुंचते हैं गाहे बगाहे
और उलझा जाते हैं मेरी
सोच की गुत्थियों को कुछ और..
बना जाते हैं नये सिलसिले,
खोल जाते हैं कोई नया छोर..
तुम सो जाओ, तुम खो जाओ..
इन पर चलता नहीं कोई जोर..
अक्षिणी
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