मंगलवार, 6 जून 2017

चिंदियां....

तेरी रहमत पे यकीं है मुझे या रब,
तू जो चाहे तो अंधेरों को उजाले कर दे..
होठों पे हंसी , आंखों में सितारे भर दे,
जख़्म भर दे , भूखों को निवाले कर दे..

आह से वाह तक,
चाह से राह तक.
इतनी सी बस ,
इतनी सी ज़िंदगी..

ये तो दरख़्तों ने लाज रख ली
और हो गए ख़ाक,
बुझ ही जाती वरना ये तीली
इसकी क्या बिसात..

नज़र से नज़र का नज़र को चुराना,
कयामत है उनका यूं बहाने बनाना..

नामुकम्मल है तो सज़दा
किया करते हैं उसके दर पे.
जो अंजाम तक पहुंचते तो,
देखते नहीं नज़र भर के..

क्या रूह का ताना,
क्या ज़िस्म का बहाना,
सब उस से
जुदा हो के जाना...

जिस्म ख्वाहिशों में रहे
या बंदिशों में,
उम्र गुजरी है रूह की
ज़ुम्बिशों में..

अक्षिणी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें