मंगलवार, 27 जून 2017

बरसों..

तेरे नाम को हवाओं से सुना बरसों,
तेरे चेहरे को पानी पे उकेरा बरसों.
चार लम्हों के ज़हर को लाख कतरों में पिया है ,
चंद यादों के सफर को स्याह अंधेरों में जिया है.

-अक्षिणी

रविवार, 25 जून 2017

अंदाज़े बयां..

अंदाज़े-बयां कुछ ऐसा हो,
लफ़्ज़ों से मुहब्बत हो जाए.

हम कह भी सकें वो सुन भी सकें,
और दूर शिकायत हो जाए..

लब खोल भी दें रस घोल भी दें,
मीठी-सी शरारत हो जाए..

हम बोल भी लें वो तोल भी लें,
बातों में बगावत हो जाए..

कुछ हार भी लें कुछ जीत भी लें,
रिश्तों की हिफाजत हो जाए..

-अक्षिणी

शनिवार, 24 जून 2017

ईद हो जाए..

या ख़ुदाया, मेरे हिंद में आज फिर ईद हो जाए..
शीर फिरनी न सही , दाने तो मुफ़ीद हो जाएं ..

वो जो समझें तो मुहब्बत के मुरीद हो जाएं,
जो न समझें तो हिसाबों की रसीद हो जाए..

अक्षिणी

तेरी मर्ज़ी..

तुझ से शिकवा नहीं,न शिकायत कोई,
तू जो चाहे तो बियाबां को समंदर कर दे..
तुझ से गिला है न तुझ पे तोहमत कोई,
तेरी मर्ज़ी है,तू फकीरों को सिकंदर कर दे..

-अक्षिणी

ज़िंदगी..

कमाल की पहेली है ज़िंदगी तू भी ,
तू है कि उलझती नहीं, हम हैं कि सुलझते नही

कमाल की मस्ती है ज़िंदगी तू भी,
तू है कि फिसलती नहीं,हम हैं कि सँभलते नहीं

गज़ब का हुनर है ज़िंदगी तू भी,
तू है कि बिखरती नहीं, हम हैं कि सँवरते नहीं

कमाल की कश्ती है ज़िंदगी तू भी,
तू है कि भटकती नहीं, हम हैं कि अटकते नहीं

गज़ब की कशिश है ज़िंदगी तू भी,
तू है कि कुछ कहती नहीं,हम हैं कि समझते नहीं

अक्षिणी

सफर..

सुबह और शाम का ये सफर,
चलता रहे मन हो के बेखबर..
तेरी रहमत पे हो मुझको यकीं,
मेरी हस्ती पे रहे तेरी नजर..

अक्षिणी

मंगलवार, 20 जून 2017

परवाह क्या..

जो चाह हो तो राह क्या,
और राह हो तो चाह क्या.
धुप से बाँधे जो बंधन,
सायों की परवाह क्या..

अक्षिणी

रविवार, 18 जून 2017

माफ कीजिएगा..

माफ कीजिएगा दोस्तों,
यह नहीं हो पाएगा..
बहुत कोशिश की रात भर,
कि चैन से सो जाएं..
इस उदास मन को भरमाएं,
सीने पे पत्थर रख पाएं..
टूटे दिल को आस बँधाएं,
कोई नया स्वप्न दिखाएं..
कठिन नहीं असंभव है,
इस दंश को भूल पाना..
घर के दामन पे लगे,
इस दाग का धुल पाना..
मदहोशी में ये क्या कर आए,
आँखों में अपनी धुआँ भर आए..
कैसे हो अपना त्राण..?
कौन करे अब कल्याण..?
पाक के हाथों अपनी  हार,
नहीं सही जा रही मेरे यार..
बहुत चाहा कि जी बहलाएं,
क्रिकेट की हार पर,
हाकी की जीत का मरहम लगाएं..
बैडमिंटन में रम जाएं..
कोई कहे इन बल्लाधारियों से,
इन बल्लों से ज़रा कपड़े कूट जाएं..
गेंद को ज़रा तेल पानी पिलाएं..
और विश्व कप ले कर आएं,
पाक के छक्के छुड़ाएं..
फिर हमको मुंह दिखाएं..
शायद तब ये दर्द कम हो पाए..

अक्षिणी

आस के गीत..

अलसुबह जो चाह थी,
शाम तक वो खो गई..
दर्द के कतरे समेटे,
भूख चुप हो सो गई..

कर्ज़ आहें भर रहे थे,
और फर्ज़ सारे डस रहे थे..
फिर शब्द सारे मौन थे,
और अर्थ सारे गौण थे..

रात की चादर लपेटे,
नक्श तारों के नहीं थे..
धुंध के आंचल घनेरे,
लक्ष्य राहों के नहीं थे..

इस हार को जो जीत पाए,
वो नया सूरज उगाए..
फिर आस के जो गीत गाए,
स्वप्न अपने वो जगाए..

अक्षिणी

गुरुवार, 15 जून 2017

जीवन..

Life is a symphony of heart and mind,
a play of right note at the right twine..

हँसता रचता ये जीवन,
मनमानस की सरगम मधुरम्..
मन की लय पर भाव जगाए,
मनोभावों के स्वर अनुपम..

"अक्षिणी"

सोमवार, 12 जून 2017

क्षमा..

ये पूछ रहे हैं किस बात की क्षमा..?
सच भी है ,
बेचारे किस-किस बात की क्षमा माँगे..
1885में स्थापना की,या देश को दिए धोखों की?
1984के रक्तपात की,या शास्त्रीजी की हत्या की?
बोफोर्स घोटाले की या आपात काल की?
देश से गद्दारी की या रक्षासौदों में दलाली की?
गरीबों पे अन्याय की या किसानों पे वार की?
अनगिनत गलतियां हैं..
यदि सबकी माफी माँगने लगे तो
बरसों लगेगें..
और संविधान से बड़ा ग्रंथ बनेगा..
इसलिए क्षमा रहने दो और प्रायश्चित करो..
तुम्हारी क्षमा के लिए समय नहीं है
मां भारती के पास ..
वही कर रही है तुम्हारा हिसाब..
बस बंद होने को है तुम्हारी किताब..

--अक्षिणी

मंगलवार, 6 जून 2017

इज़्तिरार..

इकरार, इज़हार, इनकार, इंतजार,
इक मुसलसल इज़्तिरार है प्यार..

* मुसलसल इज़्तिरार --- Never ending helplessness

अक्षिणी

सह पाएं तो कह पाएं..

कड़वी नीम निंबोरी को,
मीठी आम अमोरी को,
चख पाएं तो कह पाएं..
और कविता बन जाए..

गहरी रात अंधेरी हो,
डसती पीर घनेरी हो,
सह पाएं तो कह पाएं..
और कविता बन जाए..

अक्षिणी..

चिंदियां....

तेरी रहमत पे यकीं है मुझे या रब,
तू जो चाहे तो अंधेरों को उजाले कर दे..
होठों पे हंसी , आंखों में सितारे भर दे,
जख़्म भर दे , भूखों को निवाले कर दे..

आह से वाह तक,
चाह से राह तक.
इतनी सी बस ,
इतनी सी ज़िंदगी..

ये तो दरख़्तों ने लाज रख ली
और हो गए ख़ाक,
बुझ ही जाती वरना ये तीली
इसकी क्या बिसात..

नज़र से नज़र का नज़र को चुराना,
कयामत है उनका यूं बहाने बनाना..

नामुकम्मल है तो सज़दा
किया करते हैं उसके दर पे.
जो अंजाम तक पहुंचते तो,
देखते नहीं नज़र भर के..

क्या रूह का ताना,
क्या ज़िस्म का बहाना,
सब उस से
जुदा हो के जाना...

जिस्म ख्वाहिशों में रहे
या बंदिशों में,
उम्र गुजरी है रूह की
ज़ुम्बिशों में..

अक्षिणी