सोमवार, 22 मई 2017

कलम..

कलम जो गा सकती थी बदलाव के सौहर,
कलम जो बजा सकती थी इंकलाब का बिगुल,
गद्दारों की औलादों के सेहरे गा रही है..
अमन के चंद कतरों की खातिर,
शोहरत के चंद लम्हों की खातिर,
कलम आज फिर बिक गई है..
कलम जो सजा सकती थी अपने होठों पे दुआ,
कलम जो देख सकती थी छोटी चीजों में खुदा,
शैतान की महफिल में ठुमके लगा रही है..
गैर मुल्कों की रोलियों की खातिर,
चंद सिक्कों की बोलियों की खातिर,
कलम आज फिर बिक गई है,
कलम जो बह सकती थी शहीदों के लहू में,
कलम जो बह सकती थी वतन परस्तों के खूं मे,
कातिलों और हत्यारों के शगुन सजा रही है,
बदनाम हो नाम कमाने की खातिर,
चंद हर्फों के दाम कमाने की खातिर,
कलम आज फिर बिक गई है..
वतनपरस्तों के लहू को लजा रही है,
गैर मुल्कों में मुजरे दिखा रही है,
कलम आज फिर बिक गई है..

अक्षिणी भटनागर

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