सँवारती हूँ उन्हें..
जगाती हूँ ,
आँगन में ले आती हूँ
सजाती हूँ,
थोड़ी धूप दिखाती हूँ..
दुलराती हूँ,
चाहों के झूले में झुलाती हूँ..
सींचती हूँ,
हवा का रुख दिखाती हूँ..
भींचती हूँ,
और सहेज कर रख देती हूँ..
अधूरे सही,
सपने तो मेरे अपने हैं ..
जीवित रखती हूँ उन्हें,
सँवारती हूँ उन्हें ..
अक्षिणी
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