चार कतरे रोज ज़िंदगी के, चुराती हूँ.. लम्हा लम्हा , परत दर परत, सँभालती हूँ छूती हूँ ,
आँखों की कोरों से सहलाती हूँ काँपते पोरों सें.. कुछ देर और..
सहेज कर रख देती हूँ यादों कों.. फिर किसी रोज जीने के लिए..
अक्षिणी
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