ओज की हो , सोज की हो, बावरे मन की मौज की हो बस एक कविता रोज की हो..
रोष की हो, दोष की हो, धूप के साये में छाँव के मधुकोष की हो, बस एक कविता रोज की हो..
जोश की हो, होश की हो, गाजरों तक दौड़ते खरगोश की हो.. एक कविता रोज की हो..
अक्षिणी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें