जो अभावों में पले और,
चाँद को माँगा किए..
आँधियों में जो खिले और
धूल में महका किए..
जो धूप को तरसा किए,
और छाँव को चाहा किए..
धुर अँधेरों से लड़े जो,
इक दीप हाथों में लिए..
वक्त की सख़्ती ने देखो,
स्वप्न मंजिल के जगाए..
डूबती कश्ती ने जिनको,
ख़्वाब साहिल के सजाए..
छूटते यूँ बेबसी में,
हो गए सपने पराए..
लूटते यूँ बेकसी में ,
दर्द के अपने ये साए..
जो धूप को तरसा किए,
और छाँव को चाहा किए..
ढूँढते जो पत्थरों में,
जीत के आखर सुनहले..
गूँजते कातर स्वरों में,
धूल के पल्लव नवेले..
जो धूप को तरसा किए,
और छाँव को चाहा किए..
टूटती उम्मीद को अपनी
अब वो दें सहारे..
रूठती तकदीर को अपनी
अब वो ख़ुद सँवारें..
जो धूप को तरसा किए,
और छाँव को चाहा किए..
अक्षिणी
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