कमाल है..
वे लिखते हैं तो
क्रांति..
और मैं कुछ लिखूँ तो
बस भ्रांति..?
ये कैसी सोच है..?
वे मुझे गरियाएं तो
उनकी स्वतंत्रता..
मैं प्रत्युत्तर भी दूँ तो
मेरी असहिष्णुता..
ये कैसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है..?
वे झंडा उठाएँ तो
वे असंतुष्ट भर हैं..
मैं झंडा उठाऊँ तो
फसादी हो जाता हूँ..
ये कैसी समानता है..?
वे अपना बचाव करते हैं,
क्योंकि वे बेचारे हैं..
मैं अपना बचाव करता हूँ तो
मैं हिंसक, आक्रामक..?
ये कहाँ का न्याय है?
मेरे विश्वासों को चुनौती देते हैं
तो वे धर्मनिरपेक्ष हैं..
उनकी सोच पर मेरे संदेह,
तो मैं सांप्रदायिक हो जाता हूँ..?
ये कैसी पंथनिरपेक्षता है..?
वे कुछ भी कह सकते हैं,
सहिष्णुता से छला जो गया हूँ..
मैं उन पर अंगुली नहीं उठा सकता,
सद्भाव का ठेका जो लिया है मैंने..
ये कैसी सद्भावना है..?
वे उफ् भी जो करें,
बड़े पापा संज्ञान लें..
मैं थानों पर ठोकर खाऊँ
प्राथमिकी हाथ में ले..
ये कैसी व्यवस्था है..?
उचित-अनुचित सब
उनके विशेषाधिकार हैं..
मेरा सर धड़ पे टिका
ये उनको अस्वीकार है..
ये कैसा संविधान है..?
वे मेरे घर में,
मेरे सर पे सवार हैं..
हो कर मालिक भी,
बेघर बेचारा,लाचार हूँ..
कैसे ये देश मेरा, मेरा विधान है..?
~अक्षिणी
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