स्त्री
तुम स्त्री हो कर भी
पुरुष से कहीं ज्यादा हो..
हाँ मगर स्त्री तुम
स्त्री रही कहाँ हो..?
पुरुष बनने की चाह में
खो रही हो अपना स्त्रीत्व..
माँ तो आज भी हो मगर
खो चुकी हो मातृत्व का ममत्व..
विवेकशून्य हो
किए जा रही हो अनुकरण
भूल कर अपना नैसर्गिक महत्व..
लौट आओ क्योंकि
व्यर्थ है ये दिशाहीन विचरण..
कब तक खोजती रहोगी
समानता के फेर में
स्वच्छंदता का अवतरण..
श्रेष्ठ हो
सो छोड़ दो पुरुष बनने का
ये आत्मघाती यत्न
अक्षिणी..
तुम स्त्री हो कर भी
पुरुष से कहीं ज्यादा हो..
हाँ मगर स्त्री तुम
स्त्री रही कहाँ हो..?
पुरुष बनने की चाह में
खो रही हो अपना स्त्रीत्व..
माँ तो आज भी हो मगर
खो चुकी हो मातृत्व का ममत्व..
विवेकशून्य हो
किए जा रही हो अनुकरण
भूल कर अपना नैसर्गिक महत्व..
लौट आओ क्योंकि
व्यर्थ है ये दिशाहीन विचरण..
कब तक खोजती रहोगी
समानता के फेर में
स्वच्छंदता का अवतरण..
श्रेष्ठ हो
सो छोड़ दो पुरुष बनने का
ये आत्मघाती यत्न
अक्षिणी..
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