सोमवार, 14 अगस्त 2017

लालों में लाल..

मन मेरा स्तब्ध खड़ा है,
निष्ठुर ये प्रारब्ध बड़ा है..

पीर मैं अपनी दिखलाऊं कैसे,
टीस ये मन की कह पाऊं कैसे..
लालों में वो लाल था ऐसे,
गालों में ज्यों गाल हो जैसे..

देख के उसको मन ऐसा जागा,
बाँध लिया फिर मोह का धागा..
हाथों से नहलाया उसको,
पोरों से सहलाया उसको..

महका करता था घर भर में,
अटका रहता था मेरी नजर में..
हाय री किस्मत लूटा ऐसा,
हाथ किसी का छूटा जैसे..

उसकी छवि को भूल न पाऊं,
कण कण में मैं ढूंढ न पाऊं..
बीज बीज वो ऐसा छूटा,
वो लाल टमाटर ऐसा फूटा..
अक्षिणी

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