जर्मनी की किसी एजेंसी ने वैश्विक भूख सूचकांक निकाला और भारत को 107वाँ स्थान दिया और भारत में मानो बिल्ली के भागों छींका टूटा।
क्या आप जानते हैं ये वैश्विक सूचकांक कैसे निर्धारित किए जाते हैं?
इनके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार होता है या ऑनलाइन गूगल फार्म भरवा कर तय किया जाता है..?
देखने वाली बात ये है कि इस ग्लोबल हंगर इंडेक्स में श्रीलंका(64),बाँग्लादेश(84) और पाकिस्तान(99) को भारत से ऊपर रैंकिंग दी गई है..
जबकि इन देशों की स्थिति हमसे छुपी नहीं है..
क्या कारण हो सकता है?क्या कारण है कि हर बार इन वैश्विक सूचकांकों के मामले में भारत पिछड़ा रह जाता है?
श्रीलंका और बाँग्लादेश बहुत हद तक भारत द्वारा दी गई सहायता पर निर्भर हैं,दवाओं के मामले में,खाद्यान्न के मामले में..आपदा प्रबंधन और सामरिक सहयोग के संदर्भ में भी..पाकिस्तान की तो ख़ैर क्या ही कहें..!
तो क्या आँकड़ों के प्रबंधन में ये तीनो देश हमसे बेहतर हैं..?
या इन सूचकांक एजेंसियों के प्रबंधन में हमसे आगे हैं?
कहाँ हैं हमारे डाटा विशेषज्ञ?
क्या उन्हें इन एजेंसियों के मानकों का पता है?
जिस एजेंसी ने यह गणना करवाई है उसे विभिन्न वैश्विक एनजीओ का समर्थन प्राप्त है।
ये एजेंसी कुपोषण, बाल मृत्यु दर आदि के मापदंड स्वयं तय करती है और उसी के आधार पर सूचकांक की गणना करती है। आइए इस पर चर्चा करें।एजेंसी के प्रतिमानों पर प्रतिदिन 1800 कैलोरी से कम खाद्य सामग्री ग्रहण करने वाले लोग भूखे और कुपोषित हैं..हमारे देश में अधिकांश लोग चपाती खाते हैं और एक सामान्य आकार की चपाती से औसतन सौ कैलोरी प्राप्त होती है..एक प्याज़ में चालीस कैलोरी और एक कटोरी दाल में 60-80 कैलोरी..अब यदि 1800 कैलोरी प्रतिदिन का लक्ष्य ले कर चलें तो केवल दाल रोटी पर जीने वालों को कम से कम बारह चपाती रोज छ: कटोरी दाल चार प्याज़ के साथ खानी चाहिए..कल्पना कीजिए..!
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इस आधार पर तो अपने राम भी कुपोषित हैं क्योंकि डायटीशियन 1200 कैलोरी से अधिक खाने ही नहीं दे रही..
फिर आती है बात बाल मृत्यु दर की..तो इन एजेंसियों के अनुसार भारत में पाँच साल से छोटे बच्चों की मृत्यु भूख से ही होती है..
क्या आप में से कितनों ने ऐसा देखा है कि बच्चा भूख से मर रहा हो और कोई उसे खाना न दे?
क्या आप ये बात मान सकते हैं?
इन पैमानों के अनुसार यदि किसी विशेष वय के बालक की कद इनके द्वारा तय किए गए स्तर से कम है तो वो भी कुपोषित ही कहा जाएगा..आनुवांशिकता इनके लिए अर्थहीन है..
इतना ही नहीं यदि वजन ज्यादा हो तो भी कुपोषित..!
एक और बात जो ध्यान देने योग्य है कि किसी अध्ययन के परिणाम इस बात पर भी निर्भर करते हैं आँकड़ों का स्त्रोत कितना व्यापक था?
कुल कितने लोगों और क्षेत्रों से आँकड़े लिए गए..?
क्या भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों से बात की गई?लब्बोलुआब ये कि चित्त भी मेरी, पट भी मेरी, अंटा मेरे बाप का..यानि प्रतिमान भी उनके और संगणक भी..जो चाहे लिख दो और उसे सही सिद्ध करने के लिए हमारा विपक्ष, मीडिया, हमारे फैक्ट चेकर तो है हीं..
*संगणक - computer
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने सन् 2020 में एक शोध करवाया जिसमें धनाढ़्य लोग भी कुपोषित कहे गए..
निष्कर्ष यह कि भूख की समस्या गंभीर है..समाधान का प्रयास तो करना हो मगर इसे भारत विरोधी प्रचार के पूर्व नियोजित प्रयास से अधिक न समझें..
🙏
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