औरतें,
सुबह की धूप सी औरतें
हवाओं के साथ चलती हैं..
बदलाव की आहट सुनती हैं,
इंकलाब की आवाज़ बनती हैं..
औरतें,
बहते पानी सी औरतें,
किनारों का मन रखती हैं.
तसवीरों में चेहरे टांगती हैं,
और दीवारों को घर करती हैं..
औरतें,
गीली मिट्टी सी औरतें,
हर रूप-रंग में ढलती हैं.
खुशबू सी बिखरती हैं,
तपती हैं, निखरती हैं..
औरतें,
पारे की बूँदों सी औरतें,
टूटती हैं, दरकती हैं.
गिरती हैं, सँभलती हैं,
फिर जंग नई लड़ती हैं..
औरतें,
इंकलाब की आवाज़ बनती हैं..
अक्षिणी
Sunder,
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