लड़कियाँ धरती होती हैं..
जो सहेजती हैं..
पालती हैं, पोसती हैं..
देती हैं अपना..
रक्त-श्वास और मज्जा..
कि हो सके सृजन नया..
और चल पाए
ये सृष्टि का चक्र सदा..
लड़कियाँ बीज नहीं होती..!
हाँ..
अब बंजर हुआ चाहती हैं..
सृजन हुआ अब बंधन
ऊसर हो जिया चाहती हैं..
मुक्ति के नाम हो स्वच्छंद,
उच्छृंखल गगन छुआ चाहती हैं..
तोड़ प्रकृति की सीमाएं
जड़ों से परे
दिशाहीन ही
अपनी शर्तों पर
जिया चाहती हैं..
~अक्षिणी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें