आज विश्व समाचार दिवस है मित्रों..
चर्चा तो बनती है..
एक समय था जब समाचार लिए-दिए जाते थे यानि समाचारों से बहुत ही व्यक्तिगत सा नाता हुआ करता था जब शहर छोटे होते थे,गाँव घर जैसे हुआ करते थे।एक-दूसरे का हाल,गाँव-ढाणी की बात चौपाल पर ही हो जाया करती।विशेष समाचार घर पहुँचाए जाते थे।
पास-पड़ौस में जन्म-मृत्यु, ब्याह-शादी, ढोर-ढाँडों की बातें,लड़ाई-झगड़े सब सब तक पहुँच ही जाते थे।
समय बदला और आगमन हुआ हरकारों का जो यहाँ से वहाँ सूचनाएँ पहुँचाया करते,गाँव के बीचोंबीच किसी पेड़ के नीचे लोग इकठ्ठे होते और आस-पास समाचार सुनते-गुनते..हुक्के गुड़गुड़ाते और सो जाते..
बड़ा ही सीधा-सच्चा जीवन रहा होगा तब और तब के समाचार भी उतने ही सीधे-सच्चे।
फिर आगमन हुआ समाचार श्री का,समाचार पत्रों के माध्यम से।
परचे,खबरनामे,रोजनामचे छपते,लोग उन्हें स्वयं पढ़ते,औरों को सुनाते, किंतु सामाजिकता की स्थिति यह थी कि लोग समाचार पत्र भी साझे में मँगाते,समझदार जो थे।
फिर बेतार के तार ने समाचार के क्षेत्र में क्रांति ही ला दी।ऊँचे स्वर में रेडियो-ट्रांजिस्टर पर बजते समाचारों के साथ वेदव्यास,देवकीनंदन पांडे,रामानुज प्रसाद सिँह,हरि संधू,विनोद कश्यप,राजेंद्र चुघ हमारी चाय की चुस्कियों का हिस्सा बन गए..हर घंटे देश-विदेश के ताजा समाचार मिलने लगे..
जिन लोगों ने रेडियो पर समाचार सुने हैं वे ही उस श्रवणानंद को समझ सकते हैं..शब्दों से मानस में घटनाक्रम का दृश्य चित्र बनाना एक अनूठी अनुभूति कही जा सकती है। चुनाव समाचार हो या खेल समाचार या किसी प्राकृतिक आपदा की बात एक-एक शब्द को पकड़ मानो वहीं पहुँच जाया करते।
रेडियो ने समाचार प्रसारण पर बहुत लंबे समय तक एकछत्र राज किया फिर टेलीविजन समाचारों का प्रवेश हुआ और रेडियो और समाचारपत्र..दोनों की ही घंटी बज गई।दूरदर्शन की सौम्य,शालीन समाचार वाचिकाएँ आज भी हमारी आँखों में बसी हैं,अविनाश कौर सरीन, सलमा सुल्तान,ऊषा अल्बुकर्क,सरला माहेश्वरी..
तब समाचार आया करते थे..समाचारों के आगे-पीछे एक-दो स्पॉट विज्ञापन तो बजते पर समाचार विश्वसनीय हुआ करते,संवाददाता अलग होते,छायाकार अलग और समाचार वाचक अलग..समाचार वाचकों के मुखमंडलों पर भाव तो होते पर आवेग रहित..समाचार चाहे प्रुडेंशियल कप की जीत का हो या इंदिरा गाँधी की हत्या का..।
और अब..सब कुछ ब्रेकिंग न्यूज़ है..समाचार वाचक तो है ही नहीं..समाचार प्रस्तुतकर्ता है जो समाचार पर कम समाचार की भाव-भंगिमाओं पर अधिक कार्य करते हैं..शीघ्रता इतनी है मानों रेलगाड़ी छूटी जा रही..एक मिनट में सौ समाचार शंकर महादेवन के लोकप्रिय "श्वासरहित" की याद दिला देते हैं..।
संचार के आधुनिकतम संसाधनों के होते हुए भी समाचारों की विश्वसनीयता शून्यप्रायः सी हो गई है..समाचार प्रस्तोता समाचार कम अपने विचार अधिक बताते हैं जैसे कि जनता जड़मति है और समाचार की समझ ही नहीं रखती..!
समाचार को विमर्श का नाम दे कर आपसी तूतू-मैंमैं का प्रहसन बना दिया जाता है..विज्ञापनों के बीच किसी समाचार को पकड़ना फूस के ढेर में सुई ढूँढने जैसा है..मान लीजिए आपने खबर पकड़ भी ली तो आवश्यक नहीं वो सही ही हो..अब तो हाल यह है कि कहीं कोई खंडन नहीं आता..गलत-सलत सब परोस कर आगे बढ़ जाते हैं..खबर आफ्टर की पत्रावली में जा कर दब जाती है..कोई पूछने वाला नहीं..
खबर बनाने वाले से महत्वपूर्ण हो गया है खबर दिखाने वाला..और खबरिया चैनल नये जमाने के बाहुबली बन गए हैं..स्वयं के चन्द्रमुख सारी कलाओं को छोटे परदे पर देखने का नशा जनप्रतिनिधियों को समाचार समूहों का बंधक बना देता है..लिफाफा दो तो खबर छपे, खोखा दो तो खबर चले..
उस पर तुर्रा ये कि ये स्वयंभू समाचार समूह स्वयं को कार्यपालिका-विधायिका-न्यायपालिका से ऊपर कोई आसमानी ताकत समझने लगे हैं।आधे घंटे के विमर्श में ये लोग प्रथमदृष्टया वक्तव्य से लेकर सुनवाई, बहस सब कर निर्णय भी कर लेते हैं और सजा भी सुना देते हैं..
अगले समाचार तक आरोपी बदल जाता है..
समाचार अब Some-अचार भया,
प्रचार-प्रसार सब अतिसार हुआ..
समाचार की मौत,नया तमाशा रोज,
समाचार तो बचा कहाँ,सब व्यापार हुआ..