हर शाम
कटघरे में पाते हैं खुद़ को..
उठाया करते हैं सवाल,
रुबरु ख़ुद के ख़ुद पर..
मुद्दई भी हम,
मुंसिफ भी हम..
हैं पेशकार भी,
और जल्लाद भी..
कर दिया करते हैं,
सर कलम रोज़..
और सुबह फिर
उठ खड़े होते हैं कमज़र्फ..
एक नई , फौज़दारी के लिए..
अक्षिणी
उठाया करते हैं सवाल,
रुबरु ख़ुद के ख़ुद पर..
मुद्दई भी हम,
मुंसिफ भी हम..
हैं पेशकार भी,
और जल्लाद भी..
कर दिया करते हैं,
सर कलम रोज़..
और सुबह फिर
उठ खड़े होते हैं कमज़र्फ..
एक नई , फौज़दारी के लिए..
अक्षिणी
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