मंगलवार, 27 नवंबर 2018

चुनावी चर्चे..

चुनावों का मौसम है..इस चुनावी रेशम का एक सूत्र तो अपना भी बनता है..
तो चलिए बात करते हैं वोटरों की..
हर चुनाव का एक अपरिहार्य अंग होते हैं वोटर..लोकतंत्र में चुनाव ही एक ऐसा समय होता है जब वोटरों को पूछा जाता है, आधार कार्ड और पहचान पत्र की धूल झाड़ी जाती है..

म्युनिसपालिटी से लेकर संसदीय चुनावों तक वोटर का महिमामंडन किया जाता है, उनकी आरतियाँ उतारी जाती हैं, प्रशस्ति पढ़ी जाती है..कुछ दिनों के लिए तारीफों के झाड़ पर चढ़ाया जाता है ताकि जब नीचे पटका जाए तो चोट यादगार रहे.सुबह शाम प्रत्याशियों के समर्थकों की टोली हाल पूछने आती है..

सारे के सारे राजनैतिक दल इन्हें रिझाने में जुटे होते हैं.सही जगह शिकायत हो तो स्वच्छ भारत की कचरा गाड़ी की बजाय स्वयं प्रत्याशी अपनी गाड़ी ले कर आपके घर से कचरा उठाने भी आ जाते हैं.
कल तक जो आपकी ओर देखते नहीं थे, ऐंठ कर निकल जाया करते थे आज पीढ़ियों का रिश्ता निकाल लेते हैं.

आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है.वोटरों की ये खुशामद तो बड़े समय से चलती आई है.
जनाब नया ये है कि आज का वोटर बड़ा समझदार है.जिस प्रकार लोगों की जात होती है,वर्ग होते हैं और गोत्र होते हैं ठीक वैसे ही इस वोटर प्रजाति के नाना प्रकार की किस्में होती हैं जो अपनी एक छाप लिए होते हैं.

सबसे मशहूर छाप होती है खानदानी वोटरों की..कुछ भी हो वोट तो उसी पार्टी को देगें चाहे उसका उम्मीदवार चम्पु ही क्यों न हो.ऐसे लोग नवाचार में विश्वास नहीं रखते, बस ठप्पा लगाने की परंपरा निभाते हैं.लकीर पीटते हैं और देश को गर्त में धकेले जाते हैं..

इसके बाद आते हैं क्रांति छाप वोटर..
जो सिर्फ बदलाव चाहते हैं और परिवर्तन के नाम पर किसी भी ऐरे गैरे नत्थुखैरे को चुन लेते हैं और फिर पाँच साल सिर धुनते हैं. दिल्ली से दौलताबाद वाले ऐसे शेखचिल्ली परिवर्तनों के लिए दिल्ली मशहूर है..

अगली किस्म बड़ी रोचक है..ये सामूहिक विवाह की तर्ज पर सामूहिक मतदान करते हैं.वाट्सएप ने ऐसे वोटरों की बड़ी फसल तैयार की है.
फिर आते हैं फेसवोटिए यानि चेहरा देखते हैं और ठप्पा लगाते हैं. प्रोफाइल तक तो पहुँचते ही नहीं..फोटो से ही तय कर लेते हैं..

एक होते हैं डेढ़ श्याणे जो पहले सोचते हैं और फिर वोटते हैं.किसी पार्टी को ज्यादा बहुमत मिलने नहीं देते कि कहीं दिमाग ना चढ़ जाए पर अंत में ये भी दिल्ली वाले ही साबित होते हैं.
एक प्रजाति वो भी होती है जो ट्विटर पर दिनरात हवा बाँधती रहती है और चुनाव के दिन घोड़े बेच कर सोती है..

एक किस्म और होती है जो नेकी कर कुएं में डाल की तर्ज पर वोट करती है और परिणाम की परवाह नहीं करती.
कहती है, "कोऊ नृप होहि हमहूँ का हानि.."
ये सर्व दल समभाव रखती है और चुनाव चिन्ह के आधार पर वोट करती है..साइकिल चले ना चले, हाथ उलटा पड़े पर फूल तो खिलेगा ही..

फिर कुछ वोटरों की बात ही निराली है.सुबह सुबह नहा धोकर सबसे पहले वोट करते हैं और नतीजे की प्रतीक्षा करते हैं कि कुछ तो बदलेगा..ये सोचते हैं, समझते हैं फिर चुनते हैं.संख्या में कम होते हैं मगर लोकतंत्र को ज़िंदा रखते हैं,साड़ी-ताड़ी में बिकते नहीं.
बाड़ी-गाड़ी से बहकते नहीं.

इन्हीं के कारण चुनावों को लोकतंत्र का त्योंहार कहा जाता है.कुछ किस्में और भी हैं जो जाने कहाँ से टपक पड़ती हैं और हर चुनाव में एक नई कच्ची बस्ती खड़ी कर जाती हैं.कहाँ से आती हैं कोई नहीं जानता पर देश के भविष्य की दशा और दिशा दोनों बिगाड़ जाती है.ईश्वर ही बचाए इन आधारहीनों से🙏

अक्षिणी

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