गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

अंधेरा कायम है..

फिर नया हाकिम आया
नयी रोशनी के वादे और इरादे लाया
दहाड़ वो गूंजी कि खलबली मच गई
कुत्तों ने हवा का रुख देखा
और आँखें मूँद ली..समझदार थे..
हड्डी चबाते रहे
यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ
गाजरे लटक गई
और अच्छे भले दो पाये,
खरगोश बन लगाने लगे दौड़
शुरू हुई दुम हिलाने की होड़
फिर भेड़ियों ने मचाया शोर
और
हाकिम समझ न पाया झोल,
कुत्तों ने धीरे से नजर घुमाई
और आहिस्ता से हड्डी सरकाई
अब हाकिम मशगूल है
उसी हड्डी में और
अंधेरा आज भी कायम है..

--अक्षिणी

दोषी कौन ..

पीढ़ी पीढ़ी देश लूटा,
इसको काटा उसको चूंटा
कर रहे शुरूआत से
राष्ट्र का व्यापार तुम..
फिर दोषी ये सरकार क्यों?

बाँटते हो नफरतें,
खेलते हो खून से,
हो देश के गद्दार तुम,
है दुश्मनों से प्यार क्यों ?
फिर दोषी ये सरकार क्यों..?

काले धंधे तुम करते आए,
जेबें अपनी भरते आए..
देश मेरा बदहाल किए,
खाली सब भंडार किए..
ये व्यर्थ का हाहाकार है क्यों?
और दोषी फिर सरकार है क्यों?

अक्षिणी

आम आदमी

ईमानदार आम आदमी
हर रोज सुबह से शाम
दुश्वारियों के दौर से गुजरता
मजबूरियों की आह भरता है,
लाचारियों के आंसू पोंछता है,
चढ़ाया जाता है हर बार
धनिए के झाड़ पर और
फिर छला जाता है
वतनपरस्ती के नाम पर
शहीद हो जाता है,
एक बार फिर ....

अक्षिणी

कभी..

कभी यूं भी तो हो,
बेकरार दिल को सुकूं रहे..
न दिल में कसक हो,
न नशेमन में कोई जुनूं रहे..

अक्षिणी

दिया जलता रहे..

अधिक कुछ नहीं ..
रखनी है बस
हर दिए पर एक चिमनी ..
दिया जलता रहे,
हवा चलती रहे..
रोशनी कायम रहे..

-अक्षिणी

बेहतर..

आँखें नम ना हो,
दर्द छुपा रहे तो बेहतर..
राज दिल में रहें,
तमाशा न बनें तो बेहतर..

अक्षिणी

बात

बात निकले तो बस निकल जाए,
जाने निकले तो बात किधर जाए..
घर से निकले तो बदल जाए,
बात उलझे तो बात बिगड़ जाए..

अक्षिणी