सुट्टा मार कर धुआँ उड़ा रहीं हैं औरतें..
ठेकों और ठियों पर जिस-तिस को गरिया रहीं हैं औरतें..
कहने को पढ़ रहीं हैं, बढ़ रहीं हैं
जाने क्या करना चाह रहीं हैं औरतें?
अड़ रहीं हैं,लड़ रहीं हैं,
ओढ़ कर मुस्कान झूठी,
जाने कहाँ जा रहीं हैं औरतें?
बराबरी के नाम स्वयं को
छले जा रहीं हैं औरतें,
जाने क्यों पुरुष बन
जीना चाह रहीं हैं औरतें..
~अक्षिणी
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