गुरुवार, 3 अगस्त 2017

फितरत..

अंधेरे ने यहां बदल दी है फितरत अपनी,
स्याहियों को फिज़ा में घोलना छोड़ दिया है..

मज़हबों ने समेट ली है हसरतें अपनी,
नफरतों का ज़हर घोलना छोड़ दिया है..

ज़ुबानों ने चख ली है बूंदें शहद की,
बोलियों ने तीखा बोलना छोड़ दिया है..

नकाबों में छुप गई हैं आबरू सच की,
हकीकतों ने मुंह खोलना छोड़ दिया है..

जिए जा रहे हैं दूर यूं ही शाख पत्तों से,
दरख़्तों ने अब राह जोहना छोड़ दिया है ..

अक्षिणी

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