शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

बेचते हैं..

आतंकियों के पैरोकार
कुछ भी करेंगे
कुर्सी के लिए
कभी भी,कहीं भी
किसी भी हद तक
ये गरीब की आह बेचते हैं
ये शहीद की चाह बेचते हैं
मतलबी अय्यार ये
बर्बादी के असलाह बेचते हैं
खानदानी सौदागर हैं
ये पुश्तैनी गद्दार हैं
ताज जो मिले तो ये
वतन को सरे बाजार बेचते हैं

अक्षिणी


*असलाह-हथियार

अक्षिणी

क्यों..

क्यों व्यर्थ चिंतन करना है?
क्यों व्यर्थ मनन करना हैं?

जो कल था वो आज नहीं,
जो आज है वो कल कहाँ..
ये आज की बात कल,
कोई कब कह पाया है..

क्यों वादविवाद में फंसना है?
क्यों प्रत्युत्तर में धँसना है?
जब मौसम हर पल बदलना है,
क्यों बहस मुबाहिसा करना है?

अंतरजाल के इस चहकते,
जंजाल में जाने कैसी माया है.

जाने किस हत्थे के पीछे
किस तिलिस्म की छाया है
प्रकृति है,पुरूष है कोई
महामुनि है या महामाया है.

आज अहम् है जो विषय
कल बासी हो जाना है.
चर्चा परिचर्चा से बस
अपना ज्ञान बढ़ाना है.

फिर क्यों चिंतन करना है
क्यों माथे पर बल भरना है

अक्षिणी

मजदूर

शाम को रेलवे लाईन पर,
कभी ओवर ब्रिज के नीचे
कभी बस अड्डे पर
गाड़ियों के पहियों के बीच
सर टिकाने की जगह तलाशता है
वो मजदूर जो
पाँच सितारा होटलें बनाता है,
हमारे तुम्हारे
आशियाने तराशता है..

अक्षिणी

देखा है..

देखा है चेहरों को रंग बदलते हुए
लहरों को संमदर पे मचलते हुए
देखा है किसी आँख से आँसू ढलकते हुए
किसी साँस को उठते, गिरते सँभलते हुए
देखा है लोगों को जमाने के ढंग में ढलते हुए
खरबूजे के साथ खरबूजे को रंग बदलते हुए
देखा है किसी चेहरे का नूर पिघलते हुए
देखा फिर आज उसे पहलू बदलते हुए

अक्षिणी

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

लिखता कहाँ है..

कवि लिखता कहाँ है?
कवि तो बस कहता है..
जब सहता है तब कहता है
कुछ चुभता है तो कहता है
रस बरसता है तो कहता है
मन तरसता है तो कहता है
अधरों पर हँसी बन रहता है
आँख से आँसू बन बहता है
पेट की आग सा दहकता है
जेठ में फाग सा महकता है
कवि तो बस कहता है..
कवि लिखता कहाँ हैं?

अक्षिणी

सरकार आपकी है..

कामकाजी हैं?
जीना बेकार है
किसान बनिए
या बेरोजगार बनिए
काम कर कर मत दीजिए
ऋण लीजिए
चुकाईए मत
ऐश कीजिए
आखिर आप वोट देते हैं
सरकार आपकी है
राहुल जी चल पड़े हैं
गडकरी की सड़कों पर
पीयूष गोयल की रेल से
दिल्ली पहुँचने को हैं
भाजपा जावडेकर का
ब्रेक ढूँढ रही है
मोदीजी #3T में व्यस्त हैं

अक्षिणी

रविवार, 9 दिसंबर 2018

औरतें..

औरतें सुनती हैं
परिवर्तन की पदचाप
और करती हैं,
आगत का स्वागत
खुली बाहों से.
झिझकती नहीं ज़रा,
जानती हैं कि,
परिवर्तन ही
प्रगति है,
उन्नति है,
समृद्धि है..

अक्षिणी

मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

भुलाते कैसे..


कुछ वो कह गए..कुछ ज़माना..
झूठा सही अपना फसाना..
हम भुलाते भी कैसे..?

अक्षिणी

आईना

आईना बन जी रहे हैं इन दिनों,
मन में झांक लिया करते हैं..
आते-जाते गाहे-बगाहे ख़ुद को,
ख़ुद ही आंक लिया करते हैं..

कोलाहल के कोहरे से दूर,
भीतर जी रहे हैं इन दिनों..
इससे उससे मिलते आए,
खुद से मिल रहे हैं इन दिनों..

अक्षिणी

तमाम रात..


कहता रहा चाँद,
तमाम रात अपनी बात..
चाँदनी,
सुनती रही तमाम रात..
खामोश लब,
बोलते रहे तमाम रात..
पूरी अधूरी सी बात,
जागती रही तमाम रात..

अक्षिणी