शुक्रवार, 5 मई 2017

सुबहों को..

सुबहों को उजाले खिल जाएं तो
शामों को निवाले मिल जाएं..

चेहरों की नकाबें हट जाएं तो,
शिकवों के खजाने खुल जाएं..

जख़्मों के बहाने मिल जाएं तो,
मरहम की दुकानें खुल जाएं..

आहों के समंदर धुल जाएं तो,
खुशियों के तराने बन जाएं..

शब्दों की कटारें तन जाएं तो,
बातों के फसाने बन जाए..

अक्षिणी भटनागर

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